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'Priyamvada' By Neha Mishra : Book Review

'Priyamvada' By Neha Mishra : Book Reveiw
on Jan 17, 2022
image source : priyamvada

प्रकृति, प्रेम, प्रियंवदा और प्रियम, लगते हैं ना सभी एक - दूसरे के पूरक! यक़ीनन हैं भी। खुशगंवार रहा ये वक़्त कि एक और पुस्तक मुझे उपहार में मिली। शब्दों से इतना गहरा है इनका प्रेम कि शब्द-शब्द दिल में उतरती हैं इनकी बातें। कविताओं में एक सुंदर और प्रेमिल संसार रच दिया है।

इसके पहले पन्ने ही मुझे प्रभावित किया जहां लेखिका ने अधिक भूमिका न बांधते हुये बस इतना ही प्रभावशाली ढंग से कहा है कि वो बिखरे हुये मोतियों को पुन: सजाने का प्रयत्न कर रहीं हैं। अनुक्रमणिका से ही स्पष्ट है कि आधुनिक गद्य से सजी इन कविताओं का वैशिष्ट्य प्रेम है।

पुस्तक का पहला खंड मनभावन प्रेम को समर्पित है। नायिका के अधिकांशत: एकल संवाद गहनता को दिखाते हैं। कभी-कभी सोच की उत्कंठा इस तरह बढ़ जाती है कि सारे प्रश्नों के उत्तर स्वत: ही झरने लगते हैं..... मगर यही सोच/ मेरी उत्सुकता को/ मेरे भीतर ही थाम लेती हूं/ कि जो आनंद उत्सुक फुहार में है/ वो प्रश्नों के तीव्र बौछार में कहां?...


जहां एक और प्रेम में प्रतीक्षा की निष्ठुरता है, वहीं दूसरी ओर आगमन का पुलक सहेजता मन भी है। "प्रेमागमन" एक ऐसी ही अभिव्यक्ति है। आसमानी स्वयंवर से एकाएक नायिका भू-लोक पर अा जाती है और उनकी तलाश होती है प्रेमी के लिए उपहार पर मन का दिव्य प्रेम इसे तुच्छ मानकर विस्मृत करना चाहता है। गीतों से श्रृंगार और समुद्र की प्रेयसी बनने जैसे भावों में अतिशयोक्ति का प्रयोग हुआ है....
"मैं बन लहर/आसमां पहन/समुद्र की मैं प्रेयसी/बादलों से उतर आयी हूं।"

अगला खंड "तुम्हें प्रेम करने की मेरी चाह" पूर्ण रूप से उन प्रतिमानों को समर्पित है नायिका जिन प्रतिबिंबों में स्वयं को रखकर अपने प्रिय के पास पहुंच जाना चाहती हैं... पत्र के माध्यम से तो कभी पक्षी बनकर, कभी नदी की भांति अगाध हो ईर्ष्या रूपी ज्वालामुखी उसमें बहाकर तो कभी तीव्र कल्पनाओं के माध्यम से। मकड़जाल रूपी नायिका का हृदय भी इससे अछूता नहीं। अन्तिम दो कवितायें जिनमें प्रिय की खोज एवं विश्वास वर्णित है, खंड की सुंदरता बढ़ाते हैं।

अगले पड़ाव " अलविदा प्रेम" के अन्तर्गत इस सत्य को उकेरा है कि जब जीवन में प्रेम शेष न हो तो कठिन है प्रेम कवितायें लिखना। उदास मन की तुलना कभी रेलगाड़ी से तो कभी सावन मनाकर पीहर से लौटती विवाहिता से की गयी। विदा प्रेम की गहन पीड़ा झलकती है इन शब्दों में.....
"किसी भाषा में/ किसी बोली में/ किसी पुस्तकालय/ या शब्दकोश में/ नहीं मिल रहा/वह शब्द/ जो/ आशाओं के/ पुन: सृजन में/ असमर्थता से उत्पन्न पीड़ा को/व्यक्त कर सके"....

"उदास प्रेमिकाओं" का मार्मिक चित्रण किया है अगले भाग में। नायिका भली-भांति जानती है कि वो भले अहल्या हो ले पर राम नहीं आने वाले।  किसी के आने-जाने की बीच की स्थिति में कितना कठिन है सामंजस्य बिठाना। छोटी-छोटी बातों को सहेज लेने से आसान हो सकता था जीना। कैसे कम होगा दुःख जब "दुःख ही एकमात्र सत्य है"। "प्रेम देखने की अभ्यस्त आंखें" कहां पाती हैं ठौर, भले ही विलीन हो जायें स्मृतियों में।

अगला भाग समर्पित है कभी शुष्क, कभी जल बनी "नदी एवं स्त्री" को।
आदिकाल से स्त्री की तुलना नदी से की गयी है। कहीं नदी का सागर में विलीन हो मृत हो जाना है, तो कहीं संभावना है जीवन मृत सागर में अंगड़ाई ले। उपेक्षा में विलीन चेहरा भी है, "लूणी" का संघर्ष इस भाग का उर है....."तब लौट अायी होगी/ खंडित हृदया चुपचाप/ मन में कुछ विचारते/ संजोते हुये प्रेम पर विश्वास"....


अंत में आते हैं इस पुस्तक के "प्रिय तुम मेरी प्रतीक्षा करना" के साथ। सभी कवितायें सुंदर बन पड़ी हैं। कविता के माध्यम से लेखिका ने उजागर किया है प्रेम के लिए अपना दर्द, जब प्रेम को हृदय में सींचते हुये प्रथा, परम्परा, मान्यता, आडंबर और सीमायें आदि बाधक बनती हैं। जिनसे पार जाकर नायिका प्रेम जीना चाहती है। पुस्तक में इससे इतर कुछ कमियां भी दृष्टिगोचर होती हैं.. प्रूफ रीडिंग का अभाव तो कहीं - कहीं पर उपयुक्त फ़ॉन्ट का चुनाव न होना अखरता है।

उपरोक्त पुस्तक की लेखिका नेहा मिश्रा "प्रियम" का यह प्रथम काव्य संग्रह है। संग्रह का मूल्य १४९ रुपये मात्र है। लेखिका को साहित्यिक उज्ज्वल भविष्य हेतु अशेष शुभकामनाएं!

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