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अदिति माहेश्वरी -निदेशक, वाणी प्रकाशन


on Mar 02, 2023
vani prakshan

अदिति माहेश्वरी गोयल वाणी प्रकाशन में कार्यकारी निदेशक हैं और वाणी फाउंडेशन में मैनेजिंग ट्रस्टी हैं। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रकाशन और संपादन विषय पढ़ाती रहीं हैं। जयपुर बुकमार्क (जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल) के मूल एडवाइजरी  पैनल की  सदस्य हैं एवं वाणी फाउंडेशन विशिष्ट अनुवादक पुरस्कार की सचिवालय प्रबंधक हैं। 

अदिति अंग्रेजी साहित्य (हंस राज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय) और एमबीए (स्ट्रैथक्लाइड बिजनेस स्कूल, स्कॉटलैंड) में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त हैं और सामाजिक विज्ञान में प्री-डाक्टरल ध् एम.फिल डिग्री ( टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई ) प्राप्त हैं। उन्होंने पब्लिक रिलेशन और विज्ञापन में डिप्लोमा भी किया है।

फ्रंटलिस्टः वाणी प्रकाशन ने एक ऐसा मानदंड स्थापित किया है जिसे कोई भी पार नहीं कर सकता है। हिंदी प्रकाशन उद्योग में अपनी स्थापना के बाद से आज तक क्या बदलाव आया है?

अदितीः आपने कहा कि वाणी प्रकाशन ने प्रकाशन उद्योग में नये मानदण्ड स्थापित किये हैं। इसके लिए बहुत-बहुत आभार। अपने कार्य के प्रति समर्पण रखते हुए दिन-प्रतिदिन अच्छी पुस्तकें प्रकाशित करना ही हमारा ध्येय है। यह ध्येय पिछली तीन पीढ़ियों से एक प्रतिबद्धता के रूप में विरासत के तौर पर हम सभी को आशीर्वाद के रूप में मिला है। हिन्दी प्रकाशन उद्योग में पिछले 75 वर्षों में बहुत से बदलाव आये हैं। इनमें  कॉपीराइट की व्यवस्था, पुस्तकों की मार्केटिंग, साज-सज्जा, विषय-वस्तु, लेखक-प्रकाशक सम्बन्ध और साथ ही पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में बहुत से ट्रेंड आये और गये। इन सभी के साथ, समय के साथ ताल-मेल रखना वाणी प्रकाशन ग्रुप की खासियत है।

फ्रंटलिस्टः हिंदी प्रकाशकों को अंग्रेजी प्रकाशकों के बराबर आना बाकी है क्योंकि लोग अधिक अंग्रेजी सामग्री पढ़ना पसंद करते हैं। सबसे बड़े प्रकाशन गृह के रूप में इस सामग्री के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

अदितीः जैसा की मैंने अपने पिछले उत्तर में कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2022 के चलते, पहली पाँच कक्षाओं में भारतीय भाषाओं को शामिल करने से युवा पाठकों के बीच अपनी मातृ-भाषा के प्रति सकारात्मक बदलाव आयेगा। यह इसलिए जरूरी है , क्योंकि युवा पाठक कहीं-न-कहीं अंग्रेजी के दबाव में आकर अपनी मातृ-भाषा से दूर होते जा रहे। वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तर्ज पर कहूँ तो मातृ-भाषा से दूरी के चलते युवा छात्र आत्मविश्वास विकास में पीछे रह गये हैं। भारत में कौशलसिद्ध और बौद्धिक छात्रों की कोई कमी नहीं हैं, लेकिन अंग्रेजी के बोल-बाले के चलते वे अपनी बौद्धिकता और कुशलता को पूर्ण रूप में न ही समझ पाते हैं, न ही प्रयोग में ला पाते हैं। जब क्षेत्रीय भाषाओं को कक्षा में आदरपूर्ण जगह मिलेगी तब हमारे युवा छात्र जीवन भर अपनी मातृ-भाषा से जुड़े रहेंगे। ध्यान दीजिए कि महानगरों मे आज भी ऐसे कई स्कूल हैं, जो अंग्रेजी में न बोलने पर छात्रों को दण्डित करते हैं। इन सभी बदलावों की आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

फ्रंटलिस्टः राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2022 ने हिंदी प्रकाशन में हलचल मचा दी है। क्या पहली पांच कक्षाओं में क्षेत्रीय भाषा को शामिल करने से सकारात्मक बदलाव आएगा? क्या हम इस नए बदलाव से निपटने के लिए तैयार हैं?

अदितीः मेरा खयाल हैं कि अंग्रेजी की पुस्तकें हमारे देश में ज्यादा पढ़ी जा रही हैं, यह एक भ्रम है। भारतीय भाषाओं में दैनिक प्रकाशन प्रणाली और उसमे लिखने-पढ़ने, विचार-विमर्श और आलोचना के जितने भी ट्रेंड हुए हैं,  उनको ध्यान में रखते हुए यह कहना सही ही होगा कि हिन्दी प्रकाशकों का अंग्रेजी प्रकाशकों से कोई मुकाबला नहीं हैं। हिन्दी साहित्य अपने पाठकों के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी कदम- ताल बनाये हुए हैं। यहाँ इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि देश की अधिकांश जनता अपनी मातृ-भाषा में सोचने-समझने में एवं अभिव्यक्त कर पाने में खुद को बिलकुल सहज पाती है।  हाँ,  यह जरूर हैं कि वैश्वीकरण के चलते अंग्रेजी भाषा का बोल-बाला बढ़ा है।  लेकिन हम यह भी जानते हैं कि अब नयी शिक्षा नीति के तहत हिन्दी में तकनीकी विषयों पर पुस्तकें जल्द ही उपलब्ध होने वाली हैं और इसके चलते जो एक बहुत बड़ा गैप दिखता है हिन्दी एवं अंग्रेजी या फिर यूँ कहे कि अंग्रेजी एवं भारतीय भाषाओं की दुनिया में कम होने जा रहा है।

फ्रंटलिस्टः क्या आप मानते हैं कि हिंदी साहित्यिक उत्सवों ने हिंदी पुस्तकों और लेखकों को उजागर करना आसान बना दिया है?

अदितीः मैं यह बिलकुल मानती हूँ कि, हिन्दी भाषा दरअसल अपने शौष्ठव में जन-समुदाय, लोकवृत्त और चर्चा-परिचर्चा की भाषा रही है। हिन्दी के आधुनिक स्वरूप को जिसे हम आज बोल-चाल की भाषा और बौद्धिक विमर्श के लिए प्रयोग करते हैं, उसका जन्म ही सौन्दर्य और विद्रोह की कोख में हुआ हैं। इसलिए हिन्दी साहित्य जन-मानस के प्रति रुझान के साथ-साथ मानवीय मूल्यों को रेखांकित करता आया है। एक दौर था, जब हिन्दी साहित्य पर गोष्ठियाँ व साहित्यिक विचार विमर्श पर चर्चाएँ सामयिक तौर पर हुआ करती थीं। धीरे-धीरे इन कार्यक्रमों एवं आयोजनों ने साहित्यिक उत्सवों का रूप ले लिया। यहाँ ध्यान दीजिए कि साहित्यिक उत्सवों ने युवाओं को बहुत नजदीकी से साहित्य एवं लेखकों से जोड़ा है। यह भी देखा गया हैं कि महानगरों में हो रहे इन  साहित्यिक उत्सवों मे हिन्दी और भारतीय भाषाएँ कहीं-न-कहीं उपेक्षित भी होती हैं। ऐसे में हिन्दी साहित्य से जुड़े सभी लोग, चाहे वे लेखक हों, प्रकाशक हों या सम्पादक,  उन सभी को अपने साहित्य के प्रति गौरव की भावना को रेखांकित करना चाहिए एवं अपने साहित्य का विश्व मंच पर प्रतिनिधित्व करना चाहिए। यह भी जरुरी है कि, डिजिटल युग में हिन्दी साहित्य उत्सवों द्वारा भी लेखकों को अपने पाठकों तक किसी भी माध्यम से जुड़ने में आसानी हो।  सोशल मीडिया,  ब्रॉडकास्ट, ऑनलाइन कार्यक्रम, इन सभी ने यह बदलाव आसान किया है। वाणी डिजिटल मंच ने भी तीन साल पहले यह शुरुआत की थी और आज चार मिलियन आर्गेनिक फॉलोवर्स के साथ हिन्दी साहित्य और लेखकों को हम जन-जन तक पहुँचा रहे हैं।

फ्रंटलिस्टः क्या हिंदी भाषा के प्रकाशक कभी अंग्रेजी भाषा के प्रकाशकों के खिलाफ प्रमुखता हासिल कर पाएंगे? कृपया अपना पहला अनुभव साझा करें।

अदितीः आपके प्रश्न से प्रतीत होता है कि आप अंग्रेजी प्रकाशन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन प्रणाली मानते हैं। लेकिन आपकी जानकारी के लिए बताना चाहती हूँ कि यूरोपीयन प्रकाशन प्रणाली, जिसमें जर्मन, फ्रेंच, स्वीडिश, पोलिश, इटालियन इत्यादि, ऑस्ट्रेलियन प्रकाशन प्रणाली, जापानी प्रकाशन प्रणाली इत्यादि, दुनिया में कई गुणा ज्यादा प्रभावी एवं देशव्यापी कार्य कर कर रही हैं। इन भाषाओं में प्रकाशित साहित्य असल में दुनिया का मॉरल कम्पस बदल रहा हैं। तो हिन्दी प्रकाशकों की तुलना केवल अंग्रेजी प्रकाशकों से न होकर विश्व की बड़ी से बड़ी प्रकाशन प्रणालियों से होनी चाहिए। साथ ही इस बात को भी ध्यान में रखा जाये कि हम भारतीय भाषाओं की प्रकाशन प्रणालियों को कभी भी अंग्रेजी प्रकाशन प्रणाली से तुलना नहीं कर सकते क्योंकि ये आम जन-मानस में कई गुणा ज्यादा गहरे से जुड़े हुए हैं। चाहे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम हो या उससे पहले के सामाजिक परिप्रेक्ष्य,  भारतीय भाषाओं के साहित्य ने जनपथ और राजपथ दोनों के निर्णय किये हैं। साथ ही स्वास्थ्य, आयुर्वेद,  योग,  आधुनिक जीवन,  उत्तर-आधुनिक विषमताएँ,  तकनीक इत्यादि के साथ कदम ताल बनाये रखा हैं। यहाँ फिर से कहना जरूरी होगा कि नयी शिक्षा नीति के तहत भारतीय भाषाओं के लिए नया सवेरा होने जा रहा है।

फ्रोन्त्लिस्त: डिजिटलीकरण के उद्भव के साथ, वाणी प्रकाशन को खुद को संशोधित करने के लिए किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

अदिती: सन 2005 से 2010 के बीच हुए तकनीकी बदलावों ने हिन्दी प्रकाशन प्रणाली को मूल रूप से बदल दिया है। यह वह समय है जिस पर ज्यादातर इतिहासकारों का ध्यान नहीं जा रहा हैं। यहाँ 2005 और 2010 के बीच में तकनीकी क्रान्ति ने हिन्दी प्रकाशन प्रणाली को न केवल बदला बल्कि उसको बहुआयामी भी बनाया। यह वह काल था , जिसमें सोशल मीडिया का उद्भव हुआ। साथ ही साथ प्रिंटिंग प्रेसों में नये इजाफे भी हुए। हम ऑफसेट से 3क्, 4क् प्रिंटिंग डिजिटल प्रिंटिंग,  मास प्रोडक्शन से प्रिंट ऑन डिमांड की तकनीक और साथ ही साथ नये प्रकार के कागजों का प्रयोग-ये बदलाव सुखद हैं। डिजिटलीकरण के साथ वाणी प्रकाशन को किसी प्रकार की चुनौती महसूस नहीं हुई, क्योंकि हमारा मोटो ही ‘सदा समय के साथ’ रहना है। आप को ध्यान होगा कि 2008 में जब फेसबुक अपना पहला चरण रख रहा था उस समय हिन्दी का फॉन्ट यूनिकोड इस प्लेटफॉर्म पर त्रुटिहीन नहीं दिखाई देता था। यहाँ हिन्दी भाषा के फॉन्ट-तकनीकीकरण का उल्लेख करना जरूरी हैं क्योंकि यह आज भी सिर्फ हिन्दी नहीं अन्य भारतीय भाषाओ के लिए भी समस्या का कारण हैं।  भारत सरकार से हमारा निवेदन है कि वे सॉफ्टवेयर जो हिन्दी प्रकाशन में प्रयोग होते हैं, उनके एवं भारतीय भाषाओं के फॉन्ट के बीच सामंजस्य और सुलभ करने के लिए जिस अनुसन्धान की जरूरत है, उसमें वे प्रकाशन उद्योग का सहयोग करें। हम लगभग 10 वर्षों से सभी सामग्री ई-बुक, ऑडियो-बुक और प्रचार-प्रसार के सभी डिजिटल माध्यमों पर प्रखरता से उपलब्ध कराते आ रहे हैं। पाठकों एवं लेखकों के बीच का सेतु लगभग डिजिटल माध्यम से हो सकता है,  यह हमने सार्थक किया और हमें खुशी हैं कि 2009 से हम सोशल मिडिया पर आर्गेनिक रूप से अपने पाठकों के साथ जुड़े हैं। दिन-प्रतिदिन युवा पीढ़ी को अपने साथ जोड़ रहे हैं, ताकि हिन्दी के प्रति उनका आकर्षण बना रहे और लेखकों को और नजदीक से जान सके।

फ्रोन्त्लिस्त: नीलसन बुकस्कैन डेटा के अनुसार, मूल हिंदी शीर्षकों की पुस्तकों की बिक्री हिंदी-अनुवादित पुस्तकों की तुलना में काफी कम है। इस पर आपके विचार क्या हैं?

अदितीः यद्यपि नीलसन बुकस्कैन डाटा एक अच्छी पहल है। हिन्दी साहित्य के मामले में नीलसन बुकस्कैन के आंकड़े बहुत उपयोगी नहीं जान पड़ते। उनके आंकड़े एकत्रित करने के केंद्र में मुख्य रूप से वे काउंटर हैं, जो अधिकांश रूप से हिन्दी पाठकों द्वारा चयनित पुस्तकों के पढ़ने एवं खरीदने के केंद्र नहीं हैं। हिन्दी का पाठक यूनिवर्सिटी बुक शॉप्स, पुस्तक विक्रेताओं,  रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और कुछ वर्षों से बड़े मॉल या बड़े बुक स्टोर्स पर जाते हैं। लेकिन अधिकांश पाठक विश्व विश्वविद्यालय स्थित पुस्तक केंद्र या उपरोक्त केन्द्रों से अपनी पुस्तकें प्राप्त करते हैं। यहाँ यह जानना जरूरी हैं कि नीलसन की डेटा कलेक्शन प्रणाली इन केन्द्रों पर केन्द्रित नहीं होती इसलिए डिजिटल माध्यम से हो रही पुस्तक बिक्री या कुछ बड़े पुस्तक केन्द्रों से जो आंकड़े इन्हें प्राप्त होते हैं वह उसी को आधार बनाकर अपनी रिपोर्ट बनाते हैं। इस रिपोर्ट से अधिकांश हिन्दी पाठक गायब हैं।  

फ्रंटलिस्टः क्या हम युवा पीढ़ी को हिंदी साहित्य पढ़ने के लिए राजी कर सकते हैं? क्या इसके लिए एकजुटता दिखाने के लिए वाणी प्रकाशन समूह कुछ कर रहा है?

अदितीः मुझे आपको बताते हुए खुशी हो रही है कि पिछले पांच वर्षों में युवा पाठकों का हिन्दी के प्रति रुझान 12 से 15 प्रतिशत बढ़ा है। ये आंकड़े वाणी प्रकाशन द्वारा पिछले पुस्तक मेले में एकत्रित आंकड़ों पर आधारित हैं। सोशल मीडिया के जरिये हम अपने युवा साथियों के साथ जुड़ते हैं एवं उन तक पुस्तकें पहुँचाते हैं। इसी के बाबत उनका फीडबैक भी हमें मिलता हैं। हमें 10 वर्षों पहले जो संकट महसूस होता था, जिसमें हिन्दी का युवा पाठकों तक पहुँचने का रुझान कुछ संकट में जान पड़ता था, आज उस परिस्थिति में हिन्दी एवं हिन्दी के युवा पाठक नहीं हैं।  बहुत गर्व के साथ कहना है कि मैं भी एक पाठक हूँ और महीने में कई पुस्तकें खरीद कर पढ़ती हूँ। मुझे पूरा यकीन हैं कि मेरे ही जैसे उत्साही पाठक हमारे बीच मौजूद हैं और वे हिन्दी साहित्य और भाषा के प्रति उत्साहित, समर्पित और सहज भी हैं।

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